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VICTIM INVERSION: चूहा काटता है, और  छुप जाता है, जैसे कुछ हुआ ही न हो।

Updated: Apr 26

-S.S. Tejas


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आधुनिक असमान युद्ध (asymmetrical warfare) के परिदृश्य में एक खतरनाक प्रवृत्ति उभरकर सामने आई है — हिंसा का पूर्व नियोजित प्रदर्शन और उसके तुरंत बाद का दिखावटी विरोध। एक आतंकी संगठन किसी भीड़-भाड़ वाले स्थान या नागरिक ठिकाने पर हमला करता है, और कुछ ही मिनटों में उससे जुड़े अन्य संगठनों या वैचारिक रूप से सहमत समूहों द्वारा उस हमले की निंदा कर दी जाती है।


21वीं सदी में आतंकवाद केवल बंदूक और बारूद का खेल नहीं रहा, यह अब प्रवचन, छवि और वैचारिक अंतरिक्ष पर कब्ज़ा करने की होशियार रणनीति बन चुका है। पहले हमला किया जाता है — कभी स्कूलों में, कभी बाज़ारों में, कभी धार्मिक स्थलों पर। फिर, कुछ ही मिनटों में उसी विचारधारा या समर्थन नेटवर्क से जुड़ी ताकतें उसकी आलोचना कर देती हैं। यह निंदा कभी धार्मिक तर्ज पर होती है, कभी मानवाधिकार की भाषा में और कभी “हम इसका समर्थन नहीं करते” जैसे खोखले शब्दों में। यह विरोध पश्चाताप नहीं है — यह प्रतिष्ठा प्रबंधन है।


आतंक अब केवल बॉर्डर के पार से नहीं आता। वह NGO, धार्मिक मंच, सोशल मीडिया चैनल और तथाकथित एक्टिविस्ट नेटवर्क के रूप में आता है। ये संगठन पहले समाज में “विचार बीज” बोते हैं — अल्पसंख्यक असुरक्षा, धार्मिक उत्पीड़न, या सामाजिक बहिष्कार के नाम पर। जब हमला होता है, तो वे कहते हैं: “हमें अफ़सोस है, लेकिन हमें कारणों को भी समझना चाहिए।” यह ‘victim inversion’ यानी पीड़ित को दोषी ठहराने की सूक्ष्म शुरुआत होती है। आतंकवाद यदि मुस्लिम समुदाय से जुड़ा हो, तो कई राजनीतिक दल चुप्पी साध लेते हैं, या दोतरफा निंदा का नाटक करते हैं। इससे आतंकवादियों को यह संकेत मिलता है कि उनकी विचारधारा को ‘राजनीतिक अस्पष्टता’ का संरक्षण प्राप्त है।


यह वही रणनीति है, जिसे आम भाषा में कहा जा सकता है: “चूहा काटता है, और तुरंत भाग कर छुप जाता है, जैसे कुछ हुआ ही न हो।” लेकिन इस काटने के बाद जो घाव होता है, वह न सिर्फ शरीर पर होता है, बल्कि समाज के मनोविज्ञान, सांप्रदायिक संतुलन, और राज्य की विश्वसनीयता पर भी पड़ता है।

यह व्यवहार चूहे के काटने जैसा है — चुपचाप, अचानक और पीड़ादायक। चूहा अंधेरे में काटता है, और तुरंत छुप जाता है, जैसे कुछ हुआ ही न हो। हमला करने के बाद हमलावर संगठनों का यह “विरोध प्रदर्शन” वास्तव में नैतिकता नहीं, बल्कि रणनीतिक दूरी बनाने की एक कोशिश होती है।


केस स्टडी  से समझें:


जब ISIS समर्थित हमलावरों ने 2015 में पेरिस के बटाकलान थिएटर पर हमला किया, तब यूरोप और पश्चिमी देशों के कई मुस्लिम धार्मिक संगठन और इस्लामी नेताओं ने इसकी भर्त्सना की। लेकिन इनमें से कई वही संगठन थे जो पहले तक “इस्लाम खतरे में है”, “इस्लामोफोबिया”, “ग़ज़वा-ए-हिंद” जैसे विचारों को खुलकर मंचों से प्रचारित कर रहे थे। यही वह क्षण था जब आतंकवाद की रणनीति “हिंसा + निंदा” के माध्यम से खुद को वैचारिक वैधता दिला रही थी। यह एक “controlled condemnation” की नीति थी, जो सिर्फ सामाजिक दवाब को प्रबंधित करने और दीर्घकालिक वैचारिक विस्तार के लिए अपनाई जाती थी।


इस रणनीति के पीछे का मनोविज्ञान भी समझने योग्य है। आतंकवादी संगठन अब केवल शारीरिक दहशत के लिए नहीं, बल्कि मानसिक और सांस्कृतिक नियंत्रण के लिए भी प्रयासरत हैं। ISIS की रणनीति थी कि हमला के बाद सामाजिक मनोविज्ञान को इस प्रकार से प्रभावित किया जाए कि पीड़ित समुदाय खुद को दोषी समझने लगे, या कम से कम यह महसूस करे कि "हमने ही कुछ ऐसा किया जिससे यह हुआ।" यह एक प्रकार का "victim inversion" है – यानी पीड़ित को दोषी और हमलावर को प्रतिक्रिया देने वाला बताया जाना। इसीलिए,

भारत में आंतकवादी के हमलों के बाद मानवाधिकार समूहों, कुछ बुद्धिजीवियों और सामाजिक संगठनों का एक वर्ग तुरंत कहता था: “हमले की निंदा करते हैं, लेकिन यह हमला क्यों हुआ, इसके पीछे के सामाजिक-राजनीतिक कारणों को समझना ज़रूरी है।”

यह वही बौद्धिकता है जो आतंकवाद को विचारधारा के स्तर पर शरण देती है। इसमें न तो हिंसा का स्पष्ट विरोध होता है, न आतंकवाद की वैचारिक जड़ों पर आघात। इसके बजाय, इसमें निंदा भी होती है, लेकिन वो केवल ‘formality’ होती है, असल उद्देश्य उस हिंसा को सामाजिक और वैचारिक रूप से स्वीकार्य बनाना होता है।“हम हिंसा के खिलाफ हैं, लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि मुसलमानों पर क्या बीत रही है…”।इसी सोच की तर्ज पर भारत में कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी आंतकवादी के परिवार को संवेदनात्मक तरीक़े से समाज से जोड़ने की कोशिश करते रहे हैं। यह वही “चूहा काटे, और फिर पीछे हट जाए” वाला चरित्र है।



“जो विचारधारा ज़हर बोती है, वह सिर्फ शब्दों से खुद को निर्दोष घोषित नहीं कर सकती।”

आज हर राजनीतिक परामर्श, हर सुरक्षा नीति, और हर सामाजिक रणनीति को इस द्वैध यथार्थ को पहचानना होगा — कि हिंसा और विमर्श अब साथ-साथ चलते हैं। हमला किसी एक जगह होता है, लेकिन उसकी गूंज एक वैचारिक युद्धभूमि में गूंजती रहती है, जहां मासूमियत का मुखौटा पहनकर आतंक की भाषा बोली जाती है।वे संगठन या व्यक्ति जो प्रत्यक्ष रूप से हमले में शामिल नहीं होते, लेकिन विचारधारा, धन या मौन समर्थन के माध्यम से उसकी जड़ें मजबूत करते हैं, वे केवल एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते। फ्यूज जलाने के बाद आग की निंदा करना किसी नैतिकता का नहीं, बल्कि बौद्धिक धोखे का प्रमाण है।


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ॐ शांति


यह व्यवहार उस परजीवी (parasite) जैसा है जो अपने मेज़बान को मारना नहीं चाहता, बल्कि उसे लंबे समय तक उपयोग में लेना चाहता है जैसे कश्मीर में होता रहा है और तो और हर एक हमले के बाद सभी मध्यमों से एक ही स्वर से आवाज आती है 'महेमाननवाजी कोई कश्मीरियों से सीखे '। ऐसे में हिंसा के बाद की निंदा दरअसल प्रचार और सहानुभूति बचाने का औजार बन जाती है — आतंकवाद के असली चेहरे को ढकने का एक राजनीतिक मुखौटा।




जो लोग ज़हर बोते हैं, वे यह दावा नहीं कर सकते कि वे फसल से अनभिज्ञ हैं।

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