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THE DARK EMPIRE BEHIND AMERICA’S HOLY VEIL: THE RISE AND RUIN OF PASTOR ROBERT MORRIS

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अमेरिका के धार्मिक जगत के चमकदार पर्दे के पीछे छिपे अंधेरे की कई कहानियाँ समय-समय पर सामने आती रही हैं, परंतु रॉबर्ट मॉरिस की कथा उस अंधेरे का सबसे भयावह रूप प्रस्तुत करती है—जहाँ पवित्रता की आड़ में एक पूरा साम्राज्य खड़ा किया गया और फिर उसी साम्राज्य की नींव में छिपे अपराधों का सड़ांध भरा सच दुनिया के सामने फूट पड़ा। रॉबर्ट मॉरिस, जिन्हें अमेरिका में “भगवान का दूत” समझा जाता था, जिन्हें विशाल “गेटवे चर्च” का संस्थापक और मेगा-चर्च संस्कृति का जीवित प्रतीक माना जाता था, और जिन्हें हजारों ईसाई अनुयायी आध्यात्मिक प्रकाशस्तंभ की तरह देखते थे—उनकी वास्तविकता बेहद भयानक थी। यह वही मॉरिस हैं जिन्हें अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड जे. ट्रंप का आध्यात्मिक सलाहकार, उनका “स्पिरिचुअल गाइड”, और राजनीतिक-धार्मिक गठजोड़ की एक केंद्रीय कड़ी माना जाता रहा है। परंतु एक बार फिर यह सिद्ध हुआ कि सदियों पुरानी कहावत—“जैसा गुरु वैसा चेला”—सिर्फ रूपक ही नहीं, बल्कि अमेरिकी राजनीति के साये में मौजूद कठोर ऐतिहासिक सत्य है।


रॉबर्ट मॉरिस के उदय की कथा 2000 के शुरुआती वर्षों से शुरू होती है जब उन्होंने “गेटवे चर्च” की स्थापना की—एक ऐसा धार्मिक साम्राज्य जिसमें हर सप्ताह 25,000 से अधिक लोग आते, लाखों डॉलर का दान बहता, और जिसका प्रभाव अमेरिका से लेकर यूरोप, दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका, और एशिया तक फैल चुका था। मेगा-चर्चों की संस्कृति अमेरिका में धार्मिक आस्था से अधिक एक सामाजिक-राजनीतिक शक्ति का प्रदर्शन बन चुकी थी, और मॉरिस जैसे “करिश्माई पादरी” इस शक्ति के सबसे प्रमुख संचालक थे। वे मंच पर खड़े होकर आध्यात्मिकता का चमत्कारिक प्रदर्शन करते, भावनाओं को भड़काते, कैथार्सिस करवाते और अपने भक्तों से इस तरह संवाद करते थे मानो ईश्वर स्वयं उनके माध्यम से बोल रहा हो। यही कारण था कि अमेरिकी ईसाई राइट-विंग उन्हें “गॉड्स मेसेंजर” कहने लगी, और ट्रंप जैसे नेताओं ने उन्हें व्हाइट हाउस में प्रवेश दिलाकर अपने राजनीतिक-धार्मिक गठजोड़ को गहरा करने की कोशिश की।


लेकिन इस चमकदार पर्दे के पीछे 1982 का वह अंधेरा पड़ा हुआ था जिसे मॉरिस, उनका चर्च, और अमेरिका की इवांजेलिकल मशीनरी चार दशकों तक छुपाती रही। वर्ष 1982 में, जब रॉबर्ट मॉरिस केवल 21 वर्ष के थे, तब उन्हें अमेरिका के सबसे बड़े धार्मिक नेटवर्कों में से एक—“जेम्स रॉबिसन इवांजेलिकल एसोसिएशन”—द्वारा एक “ट्रैवलिंग इवांजलिस्ट” के रूप में नियुक्त किया गया। बाहर से आकर्षक लेकिन भीतर से बेहद जटिल संस्था-तंत्र का यह हिस्सा अमेरिका में ईसाई धर्म प्रचार का सबसे प्रभावशाली मॉडल माना जाता है, जहाँ युवा प्रचारकों को देशभर में भेजा जाता है, परिवारों के घरों में ठहराया जाता है, उनकी जरूरतों का खर्च संस्था उठाती है, और वेतन के रूप में उन्हें सालाना 30,000 से 60,000 डॉलर तक का भुगतान मिलता है। यानी यह भ्रम कि “मिशनरी मुफ्त में सेवा देते हैं”—पूरी तरह झूठ है; वे धर्म प्रचार उद्योग के वेतनभोगी कर्मचारी होते हैं, बस उनके वस्त्रों और व्यवहार में एक आध्यात्मिक चमक चढ़ा दी जाती है।


उसी अवधि में मॉरिस को ओक्लाहोमा भेजा गया, जहाँ वे “क्लेमिशायर” परिवार के साथ रहते हुए धार्मिक गतिविधियों का संचालन करते थे। यहीं उन्होंने उस परिवार की 12 वर्षीय बच्ची—सिंडी क्लेमिशायर—को निशाना बनाया। अपनी धार्मिक छवि, आध्यात्मिक अधिकार और परिवार के भरोसे का दुरुपयोग करते हुए उन्होंने बच्ची का यौन उत्पीड़न शुरू किया, जो चार साल तक चलता रहा। यह अपराध केवल एक व्यक्ति का पाप नहीं था; यह पूरे उस सिस्टम की भयावहता को उजागर करता है जहाँ चर्च, संस्थाएं और धार्मिक नेटवर्क आरोपों पर कार्रवाई करने के बजाय अपने उपदेशकों को बचाने, छिपाने और आगे बढ़ाने में लगे रहते हैं। यही हुआ—परिवार ने शिकायत की, संस्था ने उसे “सजा” देने के नाम पर कुछ समय का अवकाश दिया, और फिर मॉरिस को दोबारा धर्म प्रचार में भेज दिया गया। उनका अपराध संगठित ढंग से ढक दिया गया।


समय बीतता गया, और अपराधी मॉरिस धीरे-धीरे अमेरिका के सबसे प्रभावशाली धार्मिक चेहरों में शामिल हो गए। गेटवे चर्च की स्थापना उन्होंने भारी-भरकम दान के सहारे की, जिसे वे आध्यात्मिक गौरव का परिणाम बताते रहे, लेकिन वास्तविकता यह थी कि उनकी पहचान, प्रतिष्ठा और संपत्ति उस अपराध के ढंके हुए इतिहास पर टिकी थी जिसे किसी ने चुनौती नहीं दी। वे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बुलाए जाने लगे, टेलीविजन पर उपदेश देने लगे, करोड़ों की किताबें बिकने लगीं। और फिर, डोनाल्ड ट्रंप के राजनीतिक उदय के समय, मॉरिस उनकी आध्यात्मिक मंडली का प्रमुख हिस्सा बन गए—वही ट्रंप जिनके ऊपर स्वयं नाबालिग लड़कियों के यौन उत्पीड़न के आरोप लगते रहे, और जिनके बारे में लंबे समय से अमेरिकी सामाजिक अध्ययनकर्ता कहते रहे हैं कि उनका इवांजेलिकल नेटवर्क से गठजोड़ पूरी तरह “पॉलिटिकल बार्गेन” था, नैतिकता से उसका कोई संबंध नहीं था।


कहानी में नया मोड़ 2024 में आया, जब सिंडी क्लेमिशायर ने दशकों पुरानी चुप्पी तोड़कर फिर से अपनी आवाज उठाई। इस बार उसका सच किसी संस्था द्वारा दबाया नहीं जा सका। बढ़ते जनदबाव के कारण गेटवे चर्च ने मॉरिस को इस्तीफा देने को कहा, और अदालत में उन्होंने अपने अपराध को स्वीकार किया। उन्हें 10 साल की सजा सुनाई गई, लेकिन अमेरिकी न्याय प्रणाली की विडंबना देखिए—वे केवल छह महीने जेल में रहेंगे; बाकी समय पैरोल पर बाहर। यह सजा किसी दानव जैसे अपराध के सामने असमान और हास्यास्पद लगती है। अदालत ने उन्हें “सेक्स ऑफेंडर” के रूप में पंजीकृत करने का आदेश तो दिया और पीड़िता को 2.5 लाख डॉलर का मुआवजा भी, लेकिन न्याय का नैतिक आयाम अभी भी अधूरा है।


इस पूरे प्रकरण में चौंकाने वाली बात यह है कि अमेरिकी राजनीति और धार्मिक नेटवर्क कितना गहरे स्तर पर एक-दूसरे में गुंथे हुए हैं। मॉरिस जैसे लोग सिर्फ धर्मगुरु नहीं थे; वे राजनीति बनाने और प्रभाव पैदा करने की मशीनरी का हिस्सा थे। पादरी, प्रचारक और राजनीतिक सलाहकार के रूप में उनकी भूमिका ने अमेरिकी आंतरिक और वैश्विक नीति पर भी असर डाला। और जब हम यह देखते हैं कि इसी मॉरिस पर ट्रंप जैसे नेता अपना आध्यात्मिक भरोसा रखते थे, तब यह समझना कठिन नहीं कि अमेरिकी सत्ता संरचना में धार्मिक नैतिकता के नाम पर कितनी पाखंडपूर्ण राजनीति खेली जाती है।


रॉबर्ट मॉरिस की कहानी हमें यह भी सिखाती है कि समाज का एक बड़ा वर्ग धार्मिक वस्त्र, पवित्रता और आध्यात्मिक भाषा से धोखा खा जाता है। अनुयायी यह नहीं देखते कि पादरी का वेतन कहाँ से आता है, मिशनरी नेटवर्क कैसे काम करता है, और धार्मिक “चमत्कारों” के पीछे कितनी बड़ी वित्तीय मशीनरी लगी होती है। इसके विपरीत, भारत जैसे देशों में मिशनरी नेटवर्क गरीब परिवारों को लक्षित कर धर्मांतरण की गतिविधियों को बढ़ावा देता है, जबकि अमेरिका में यही नेटवर्क राजनीतिक एजेंडा को चमकाता है। दोनों जगह पाखंड एक समान है—बस प्रस्तुति अलग।


यह मामला अमेरिकी समाज के उस दोहरे चरित्र को भी उजागर करता है जहाँ बाहर से “फेमिली वैल्यूज”, “मोरलिटी”, “क्रिश्चियनिटी” जैसी बातें कही जाती हैं, लेकिन भीतर सत्ता, प्रभाव और धन की राजनीति चलती रहती है। मॉरिस जैसे पादरी न तो आध्यात्मिक थे, न दयालु; वे एक बड़े धार्मिक-राजनीतिक उद्योग के पेशेवर चेहरे थे। और ट्रंप जैसे नेताओं के साथ उनकी निकटता यह दिखाती है कि अमेरिकी राजनीति में “ईश्वर का दूत” अक्सर सिर्फ “प्रभाव का दूत” होता है।


अंततः यह कहानी सिर्फ एक व्यक्ति के अपराध की कहानी नहीं, बल्कि उस अमेरिकी धार्मिक-राजनीतिक संरचना की कहानी है जिसने ऐसे अपराधियों को फलने-फूलने दिया, उन्हें मंच दिया, उन्हें प्रसिद्धि दी, और अंत में जब सच उजागर हुआ, तब भी उन्हें आधी-अधूरी सजा दी। यह कथा दुनिया को यह याद दिलाती है कि नैतिकता का बड़ा दावा करने वाली शक्तियाँ भी भीतर से कितनी नष्ट हो सकती हैं—और यह भी कि जो नेता ऐसे लोगों को अपना “आध्यात्मिक गुरु” बनाते हैं, वे स्वयं किस मानसिकता, किस नैतिक धरातल और किस वैचारिक दुनिया से आते हैं।

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