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THE DARK STORY BEHIND RJD’S INTERNAL COLLAPSE

उत्तर प्रदेश के बलरामपुर ज़िले का तुलसीपुर नगर पंचायत लंबे समय तक फ़िरोज़ अहमद उर्फ़ पप्पू जी की राजनीतिक पकड़ का केंद्र माना जाता था। फ़िरोज़ अहमद न सिर्फ़ चेयरमैन के पद पर वर्षों तक सक्रिय रहे, बल्कि उन्होंने अपनी राजनीतिक समझ के तहत अपनी पत्नी कहकशां को भी चेयरपर्सन बनवाया, ताकि क्षेत्र पर उनका प्रभाव निरंतर बना रहे। इसी दौरान फ़िरोज़ स्वयं को समाजवादी पार्टी में स्थापित करने और 2022 के विधानसभा चुनाव में तुलसीपुर से टिकट प्राप्त कर चुनाव लड़ने की तैयारी में जुट गए थे। क्षेत्र में उनका प्रभाव लगातार बढ़ रहा था—वे स्थानीय लोगों में लोकप्रिय, विकास कार्यों के लिए सक्रिय और एक उभरते हुए नेता के रूप में तेजी से स्थापित हो रहे थे।


इसी राजनीतिक माहौल के बीच बलरामपुर का कुख्यात बाहुबली, पूर्व सांसद और तीन बार का विधायक रह चुका रिज़वान ज़हीर भी सक्रिय हुआ। वर्षों से सपा, बसपा और निर्दलीय रूप से चुनाव लड़ता आया रिज़वान ज़हीर अपने प्रभाव और डर के बल पर राजनीति में अपनी जगह बनाए हुए था। वह अपनी बेटी जेबा रिज़वान को तुलसीपुर से टिकट दिलवाना चाहता था, लेकिन फ़िरोज़ अहमद की बढ़ती लोकप्रियता उसके राजनीतिक योजनाओं के लिए सबसे बड़ी बाधा बन चुकी थी। पार्टी के भीतर यह साफ़ दिखने लगा था कि यदि तुलसीपुर से टिकट किसी को मिलना है, तो वह फ़िरोज़ अहमद ही होंगे—यही बात रिज़वान ज़हीर और उसके परिवार को मंजूर नहीं थी।


इसके बाद जो हुआ, वह राजनीति की काली परछाई का सबसे वीभत्स रूप था। आरोपों के अनुसार, रिज़वान ज़हीर ने अपनी बेटी जेबा और दामाद रमीज़ नेमत खान के साथ मिलकर एक योजनाबद्ध षड्यंत्र रचा। भाड़े के हत्यारों को बुलाया गया, हथियार उपलब्ध कराए गए और एक रात फ़िरोज़ अहमद को उनके घर के नज़दीक गली में घेरकर बेरहमी से मार गिराया गया। इलाके में अफरा-तफरी मच गई, लोग दहशत में आ गए और पूरे ज़िले में यह खबर जंगल की आग की तरह फैल गई कि एक उभरते नेता को राजनीतिक लालच ने निगल लिया।


पुलिस की जांच ने जल्द ही सच उगलवाना शुरू किया। दो हत्यारे गिरफ्तार किए गए और पूछताछ में उन्होंने खुलासा किया कि हत्या की सुपारी रमीज़, जेबा और स्वयं रिज़वान ज़हीर ने दी थी। यह खुलासा सपा के नेतृत्व के लिए भी बड़ा झटका था, क्योंकि मामला केवल एक राजनीतिक हत्या का नहीं, बल्कि वर्षों से फलते-फूलते माफियातंत्र का भी था।


इसके बाद यूपी पुलिस ने सख़्ती दिखाते हुए तीनों मुख्य आरोपियों को गिरफ्तार किया और गैंगस्टर एक्ट व रासुका लगाकर जेल भेज दिया। पुलिस ने रिज़वान ज़हीर के तमाम अवैध धंधों पर चोट करना शुरू किया—उसकी हड़पी हुई ज़मीनें, अवैध बिल्डिंगें, कारोबार सब पर बड़ी कार्रवाई की गई। क्षेत्र के लोगों ने पहली बार महसूस किया कि दशकों से डर बनाकर बैठा यह बाहुबली कानून के सामने टिक नहीं रहा। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने रमीज़ और जेबा को ज़मानत दी, लेकिन रिज़वान ज़हीर अब भी जेल में बंद है।


कहानी यहीं खत्म नहीं हुई—बल्कि असली मोड़ इसके बाद आया। रमीज़ नेमत खान को बिहार बुलाया गया, जहाँ उसे बुलाने वाला कोई और नहीं, बल्कि राजद के राज्यसभा सांसद और तेजस्वी यादव का सबसे भरोसेमंद सलाहकार संजय यादव था। संजय यादव ने रमीज़ को तेजस्वी यादव के डिप्टी सीएम कार्यालय में बैकडोर ऑपरेशन्स संभालने में लगा दिया। धीरे-धीरे रमीज़ ने राजद का पूरा सोशल मीडिया तंत्र अपने हाथ में ले लिया—कैम्पेन से लेकर रणनीति तक सब कुछ वह नियंत्रित करने लगा। तेजस्वी यादव, जो अपने आप को भविष्य का नेता बताते थे, अनजाने में एक ऐसे व्यक्ति के प्रभाव में आ गए जो राजनीतिक हत्या के मामले में जमानत पर चल रहा था।


रमीज़, संजय यादव और प्रियंका भारती व कंचना यादव जैसे आक्रामक प्रवक्ताओं की टीम ने मिलकर पार्टी की अंदरूनी नीतियों को बिल्कुल बदलकर रख दिया। हिंदुत्व विरोध, जातिगत ध्रुवीकरण और भड़काऊ संदेशों से भरा सोशल मीडिया अभियान चलाया जाने लगा। एक समय ऐसा आया जब राजद के वरिष्ठ नेता और तेजस्वी यादव के परिवार के लोग खुद को पार्टी में उपेक्षित और बेबस महसूस करने लगे।


परिणामस्वरूप, पार्टी के भीतर फूट पड़ गई। तेज प्रताप यादव घर और पार्टी छोड़कर चले गए। पुराने नेता और कार्यकर्ता भीतरघात में जुट गए। टिकट वितरण में आरोप लगे कि रमीज़ और संजय यादव ने उम्मीदवारों से भारी रकम वसूली। जब चुनाव परिणाम आए, तो राजद को भारी नुकसान झेलना पड़ा—और इसका दोष सीधे-सीधे रमीज़, संजय और तेजस्वी की राजनीतिक अनुभवहीनता पर डाला गया।


स्थिति तब विस्फोटक हुई जब रोहिणी आचार्य ने सार्वजनिक रूप से आरोप लगाए कि रमीज़ और संजय यादव ने परिवार और पार्टी दोनों को तोड़ दिया, और फिर उन्होंने राजनीतिक जीवन को समाप्त करने की घोषणा कर दी। यह घटना बिहार की राजनीति में भूचाल की तरह गूंजी।


अब तेजस्वी यादव खुद एक गहरे संकट के सामने खड़े हैं—एक मर्डर केस में नामज़द और जमानत पर चल रहे व्यक्ति को पार्टी का दिमाग बना देना और उसके हाथों में पूरी मशीनरी सौंप देना उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक भूल बन चुकी है। उन्होंने पार्टी को टूटने दिया, पर रमीज़ को हटाने की हिम्मत नहीं जुटाई। सवाल यह है कि ऐसा क्या दबाव, क्या मजबूरी या क्या राजनीतिक सौदा था जिसने तेजस्वी को इस स्थिति तक पहुँचा दिया?


बलरामपुर से शुरू हुई यह कहानी अब बिहार की राजनीति को हिलाकर रख देने वाली गाथा बन चुकी है—जो दर्शाती है कि अपराध, जातिवाद, अवसरवाद और सत्ता की राजनीति मिलकर किस प्रकार एक पूरे राज्य का भविष्य बदल सकती है।

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