THE ECOSYSTEM FACTORY: GROOMING YOUNG MINDS FOR LEFTIST PROPAGANDA
- S.S.TEJASKUMAR

- Nov 17
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भारत में उदारवादी–सेक्युलर–वामपंथी इकोसिस्टम जिस प्रकार युवा प्रतिभाओं को शुरुआती स्तर से “संरक्षित, प्रशिक्षित और उपयोग” करता है, उसका एक सटीक उदाहरण वकील एडवोकेट एम. हुजैफा के करियर-ट्रैक में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। उनकी प्रोफाइल देखने से यह समझना कठिन नहीं होता कि कैसे वैश्विक लेफ्ट-लिबरल नेटवर्क भारत में वैचारिक रूप से अनुकूल व्यक्तियों को चुनकर एक ऐसी मार्गरेखा पर आगे बढ़ाता है जहाँ नीति-निर्माण, मानवाधिकार विमर्श, डिजिटल एक्टिविज़्म और अंतरराष्ट्रीय एडवोकेसी — सब एक सुनियोजित ढाँचे का हिस्सा बन जाते हैं।
वर्तमान में APCR (Association for Protection of Civil Rights) से जुड़ाव उनके वैचारिक प्रशिक्षण की नवीनतम कड़ी है। APCR लंबे समय से भारत में चयनित मामलों को उठाकर एक विशिष्ट नैरेटिव बनाने के लिए जाना जाता है — और ऐसे संगठनों में काम करना युवा वकीलों को एक निश्चित दृष्टिकोण देता है जो आगे चलकर राजनीतिक और सामाजिक बहसों को प्रभावित करता है। इसके पहले उन्होंने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में इंटर्नशिप की — जो भारतीय लोकतंत्र का एक प्रमुख संस्थान है, परंतु यह भी सत्य है कि यहाँ का अनुभव कई युवा कार्यकर्ताओं को मानवाधिकार विमर्श की ऐसी दिशा देता है जो अक्सर जमीनी भारतीय वास्तविकताओं से अधिक अंतरराष्ट्रीय HR-NGO मॉडल से प्रेरित होती है।
इसके बाद उनका Youth Ki Awaaz में इंटर्नशिप करना इस नेटवर्क की बुनियादी संरचना को और स्पष्ट कर देता है। यह प्लेटफ़ॉर्म लंबे समय से पश्चिमी एजेंसियों द्वारा फंडिंग प्राप्त करता रहा है — Open Society Foundation, Ashoka Foundation, और National Endowment for the Arts (US Govt) जैसी संस्थाएँ दुनिया भर में वाम-उदारवादी राजनीति, ओपन–सोसाइटी मूल्यों और “एक्टिविस्ट जर्नलिज़्म” को बढ़ावा देने के लिए जानी जाती हैं। इन फाउंडेशंस का उद्देश्य किसी देश के भीतर वैकल्पिक विमर्श तैयार करना होता है, और भारत भी इससे अछूता नहीं रहा।
डिजिटल नैरेटिव निर्माण की दिशा में अगला कदम था Atlantic Council के Digital Sherlock प्रोग्राम में इंटर्नशिप — जो वैश्विक स्तर पर सूचना युद्ध, नरेटिव मैनेजमेंट और साइबर-इकोसिस्टम को समझने के लिए बनाया गया है। यह वही अटलांटिक काउंसिल है जिसे अमेरिकी विदेश नीति, NATO-केन्द्रिक चिंतन और डिजिटल इन्फ्लुएंस रणनीतियों के लिए विश्वभर में पहचाना जाता है। ऐसे कार्यक्रमों में युवा भारतीयों को शामिल करना इस बात को दर्शाता है कि वैश्विक संस्थाएँ किस तरह भारत के डिजिटल सार्वजनिक विमर्श में दीर्घकालिक निवेश करती हैं।
इसी क्रम में उनका Minority Rights Group (UK) के साथ जुड़ाव भी उल्लेखनीय है, जो SIDA (Government of Sweden), Open Society Foundation और US State Department के Bureau of Democracy जैसे संस्थानों द्वारा फंडेड है। इस प्रकार की संस्थाएँ दक्षिण एशिया में लोकतंत्र, मानवाधिकार और अल्पसंख्यक अधिकारों के नाम पर लगातार हस्तक्षेपकारी शोध, रिपोर्टों और एडवोकेसी अभियान चलाती हैं — जिनका राजनीतिक प्रभाव बहुत सूक्ष्म लेकिन अत्यंत गहरा होता है।
इस प्रकार एडवोकेट एम. हुजैफा की प्रोफाइल किसी एक व्यक्ति की उपलब्धि नहीं, बल्कि एक ऐसे वैचारिक पोषण–तंत्र का जीवंत उदाहरण है जो युवाओं को चुने हुए संगठनों, अंतरराष्ट्रीय फंडिंग एजेंसियों, और वैश्विक थिंक-टैंकों की परतों के बीच से गुज़ारकर उन्हें “इकोसिस्टम-रेडी कैडर” में बदल देता है। इसमें कुछ भी अवैध नहीं, परंतु यह समझना आवश्यक है कि ऐसे इकोसिस्टम का उद्देश्य केवल करियर बनाना नहीं होता — बल्कि भारत के भीतर विचार-युद्ध, नरेटिव संघर्ष और राजनीतिक विमर्श को दीर्घकालिक रूप से प्रभावित करना भी इसका हिस्सा है।









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