WHIMPERING GIANTS: INDIA’S GLOBAL POSTURE CRISIS
- S.S.TEJASKUMAR

- Jun 14
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“मैं चीन को महिमामंडित नहीं कर रहा, पर सच बोलने से हम छोटे नहीं हो जाते।”
1950 के दशक में जब नवस्वतंत्र भारत अपने राष्ट्र निर्माण के रास्ते पर पहला कदम रख रहा था, ठीक उसी समय चीन भी एक क्रांतिकारी रूपांतरण के दौर से गुज़र रहा था। दोनों देशों के पास संसाधन सीमित थे, भूख, गरीबी, अशिक्षा और औपनिवेशिक शोषण की ताज़ा विरासत थी। लेकिन आज, सात दशक बाद हम खड़े हैं एक अजीब-सी असमानता के सामने — जहाँ एक ओर चीन वैश्विक व्यवस्था की शर्तें तय करता है, वहीं भारत अभी भी अपनी सीमाओं की रक्षा और कूटनीतिक अस्मिता की तलाश में उलझा हुआ है।
“जब तक हम अपने गिरेबान में नहीं झाँकेंगे, तब तक सुधार की कोई उम्मीद नहीं।” – स्वामी विवेकानंद
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1. 1950 के दशक: एक समान आरंभ, दो अलग रास्ते
1950 में भारत और चीन दोनों ही औपनिवेशिक उत्पीड़न से बाहर निकले थे। दोनों देशों में गरीबी थी, अशिक्षा थी, औद्योगिक आधार न्यून था और सामरिक ताकत लगभग न के बराबर थी। लेकिन यही वह समय था जब नेतृत्व की दिशा दोनों देशों के भविष्य को तय करने लगी।
• भारत: लोकतंत्र की भावना से प्रेरित होकर, नैतिक मूल्यों और वैश्विक मानवता की बात करता रहा।
• चीन: एक संगठित, कठोर नेतृत्व ने राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि रखते हुए विश्व शक्ति बनने की योजना बनाई।
“महानता का भ्रम सबसे बड़ा विनाशक होता है, अगर वह यथार्थ से कट जाए।” – सुनील खन्ना, विदेश नीति विशेषज्ञ
नेहरूवादी नैतिकता बनाम चीनी रणनीतिकता
“जब एक राष्ट्र का नया जन्म हो रहा था, तब हमारे प्रधानमंत्री महानता और मानवता का दोहरा कंबल ओढ़े, भारत में नौटंकियां करते फिर रहे थे।”
यह टिप्पणी भले ही कठोर लगे, पर यह यथार्थ की ओर इशारा करती है। कश्मीरी पंडित 'नेहरू' का दर्शन अंतर्राष्ट्रीयतावाद और नैतिकता से ओतप्रोत था — वे वैश्विक एकता, गुटनिरपेक्षता और विश्व शांति के अग्रदूत बनना चाहते थे। लेकिन कूटनीति केवल विचार नहीं, व्यावहारिकता की भी मांग करती है। चीन के डेंग शियाओपिंग ने इसी काल में कहा था:
“It doesn’t matter whether the cat is black or white, as long as it catches mice.”
चीन ने यह सिद्धांत अपनाया — व्यावहारिकता को प्राथमिकता दी और अपने राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखा। वहीं भारत नैतिकता के मंच पर खड़ा होकर सीमाओं की रक्षा तक नहीं कर पाया — 1962 की हार इसका प्रमाण बनी।
जब चीन 1950 में तिब्बत में प्रवेश करता है, तो भारत चुप रहता है। जब चीन 1954 में पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर करता है, तब भी भारत “हिन्दी-चीनी भाई-भाई” की रट लगाता रहता है। जबकि चीन हर कदम रणनीतिक गहराई से भरपूर उठाता है।
भारत के तथाकथित प्रधानमंत्री, कश्मीरी पं. नेहरू की विदेश नीति आदर्शवादी थी, परंतु कूटनीतिक नहीं। उन्होंने मानवता, नैतिकता और “गुटनिरपेक्षता” के नाम पर भारत के सामरिक हितों की उपेक्षा की।
• कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र में जाना
• तिब्बत के मुद्दे पर चुप्पी
• UNSC की स्थायी सदस्यता का प्रस्ताव ठुकराना (1955, USSR के माध्यम से)
“कभी-कभी राष्ट्रों को सपनों से ज़्यादा हकीकत की ज़रूरत होती है।” – राम माधव, राजनीतिक विचारक
आज का भारत: आत्मगौरव की तलाश में डरा हुआ कूटनीतिज्ञ
भारत आज भी वही पुराना “गुटनिरपेक्ष” लेकिन असमंजस में फंसा राष्ट्र बना हुआ है। पड़ोसी देशों से बार-बार धोखा खाने के बावजूद हमारी विदेश नीति “डर” और “प्रतिक्रिया” पर आधारित है, पहल पर नहीं।
• कश्मीर पर ओआईसी (इस्लामिक देशों की संस्था) टिप्पणी करता है, हम बस “कड़ा विरोध” जताते हैं।
• क़तर जैसे देश, जो भारत से आर्थिक और रणनीतिक रूप से जुड़ा है, एक आंतरिक मामले पर भारत के उपराष्ट्रपति से
मिलने से मना कर देता है — और हमारे विदेश मंत्री का रंग उड़ जाता है।
“राजनय सिर्फ शिष्टाचार नहीं है, यह राष्ट्रीय आत्मसम्मान का शास्त्र है।” – शशि थरूर
“अगर कतर का शेख़ भारत के वाइस प्रेसिडेंट से मिलने से इनकार कर दे, तो हमारे विदेश मंत्री की तो ज़मीन सरक जाती है।”
इस प्रकार के उदाहरण केवल लज्जाजनक नहीं, बल्कि हमारी विदेश नीति की कमजोरी को भी उजागर करते हैं। हम बार-बार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर “भारत उदय” की बात करते हैं, परंतु व्यवहार में हर बार यह दिखता है कि हम कतर जैसे देश के भी असहयोग से घबरा जाते हैं। प्रश्न यह है — क्या कतर हमारी सेवा करता है? नहीं। तो हम एकतरफा झुकाव क्यों दिखाते हैं?
विदेश नीति का एक ही सिद्धांत होना चाहिए — आत्म-सम्मान और पारस्परिक हित।
भीतर से कमज़ोर, बाहर से डरपोक
हमारे पास अगर असंख्य डिप्लोमेट्स हैं, तो क्यों नहीं भारत वैश्विक मंच पर चीन जैसा आत्मविश्वास रख पाता? कारण साफ़ है — हम तैयारी में कमज़ोर हैं, हमारी नियुक्तियां चॉइस से होती हैं, क़ाबिलियत से नहीं।
भारत की विदेश नीति में एक स्पष्ट डर दिखाई देता है — अमेरिका क्या कहेगा, खाड़ी देश नाराज़ तो नहीं हो जाएँगे, चीन चिढ़ तो नहीं जाएगा? क्या यही है 140 करोड़ की महाशक्ति का आत्मविश्वास?
जब क़तर जैसे देश आंतरिक मामलों में टांग अड़ाते हैं, तो हमारे नेता झुक जाते हैं, बयान घुमा देते हैं, या खामोश हो जाते हैं। यह डर किसका है? किससे?
“हमारे विदेश मंत्री जितना समय बयान बदलने में लगाते हैं, उतना साहस पैदा करने में लगाते तो भारत सिर उठाकर खड़ा होता।” – सुभाष कश्यप
“भारत में UPSC से चुने गए डिप्लोमेट्स को ये भी नहीं पता कि चीन में राज्य और ज़िलों को क्या कहा जाता है।”
डिप्लोमैसी केवल पोशाक, इंग्लिश और टेबल मैनर्स का खेल नहीं है। ये भूगोल, इतिहास, सैन्य रणनीति और अंतरराष्ट्रीय कानून का गहरा अध्ययन मांगती है। लेकिन हमारे अधिकतर अधिकारी परीक्षा पास कर लेने भर से “डिप्लोमेट” बन जाते हैं — जो पाकिस्तान के राज्य गिनने में भी हिचकते हैं, और चीन की थिंक टैंक संरचना समझने में विफल होते हैं।
चीन में एक सामान्य जिला कलेक्टर को भी CCP की विदेश नीति के बुनियादी सिद्धांत पढ़ाए जाते हैं, जबकि भारत में विदेश मंत्रालय में काम कर रहा एक अफसर तक यह नहीं जानता कि BRICS में असल शक्ति समीकरण क्या है।
गली के कुत्ते जैसा व्यवहार
“भारत की हालत गली के कुत्ते जैसी होती है — जब किसी का मूड अच्छा हो तो बिस्किट देता है, और जब मूड खराब हो तो लात।”
यह कथन कठोर है लेकिन प्रतीकात्मक रूप से बिल्कुल सटीक। हमारी कूटनीतिक प्रतिक्रिया अक्सर दूसरों के व्यवहार पर आधारित होती है — आत्मचिंतन या दीर्घकालिक योजना पर नहीं। उदाहरण के लिए:
जब अमेरिका वीज़ा रोकता है तो हम “आपसी संबंध मज़बूत हैं” जैसे बयान देते हैं।
जब चीन ब्रह्मपुत्र का पानी रोकता है, तो हम “मौसम संबंधी” कारणों को दोष देते हैं।
जब कतर या सऊदी अरब किसी धार्मिक मसले पर दखल देते हैं, तो हम “खाड़ी देशों से हमारे गहरे संबंध” कह कर शांत हो जाते हैं।
पर असली प्रश्न यह है — क्या कभी भारत ने इन देशों से पलट कर पूछा है कि उनके यहां अल्पसंख्यकों की स्थिति क्या है? नहीं। क्योंकि हमें डर है — तेल का, ट्रेड का, या बस “इमेज” का।
भारत आज अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर एक “प्रतिक्रिया राष्ट्र” बन चुका है — जिसे कोई जब चाहे बिस्कुट डाल दे (पेटिंग और वीजा), और जब चाहे लात मार दे (विवादास्पद बयान, बहिष्कार)। इसकी वजह है:
• विदेश नीति का आत्मबलहीन स्वरूप
• भीतरी गुटबाजी और सत्ता का व्यक्तिगत एजेंडा
• वैचारिक स्पष्टता का अभाव
“विदेश नीति वह आईना है, जिसमें एक राष्ट्र अपनी आत्मा देखता है।” – कन्हैया लाल मिश्र
नेताओं की संकुचित प्रतिस्पर्धा
“आज के नेता इसी बहस में उलझे रहते हैं कि वह उनसे बेहतर हैं। इस चक्कर में भारत को महान बनाने का लक्ष्य छोटा पड़ जाता है।”
राजनीति में प्रतिस्पर्धा स्वाभाविक है, लेकिन जब यह राष्ट्रनीति पर हावी हो जाती है, तब वह घातक हो जाती है। भारत में आज भी विदेश नीति का चर्चा विपक्ष और सत्ता की टीका-टिप्पणी तक सिमट जाता है। वहीं चीन में रणनीति State Policy है — पार्टी लाइन से ऊपर।
डेंग शियाओपिंग ने 1978 में जो आर्थिक सुधार शुरू किए, वह अगले चार नेताओं ने उसी दिशा में आगे बढ़ाए — बिना उसूलों की छीना-झपटी के। भारत में हर सरकार नई शुरुआत करना चाहती है, जिससे निरंतरता का अभाव बना रहता है।
भारत को ‘डर’ नहीं, ‘दृढ़ता’ से विदेश नीति बनानी होगी। डर का कोई धर्म, राजनीति या मानवाधिकार नहीं होता। एक राष्ट्र अपने आंतरिक मामलों पर जब तक अडिग नहीं रहेगा, तब तक बाहरी शक्तियाँ हस्तक्षेप करती रहेंगी।
उदाहरण:
• चीन: अपने भीतरी मामलों पर दुनिया को बोलने तक नहीं देता, उल्टा पश्चिम पर हमला करता है।
भारत को इन उदाहरणों से सीखना होगा।
कश्मीर, उत्तर-पूर्व और नक्सलवाद: हमारे अपने बनाए ज़ख़्म
“जब एक राष्ट्र के तौर पर नया जन्म हो रहा था, तो हमने जिन हिस्सों की ज़रूरत थी, वहाँ इंसानी रिश्तों के नाम पर राजनीतिक घाव बो दिए।”
कश्मीर समस्या केवल पाकिस्तान या अंतर्राष्ट्रीय इस्लामिक कट्टरवाद की देन नहीं है — यह आंशिक रूप से हमारी अपनी idealism-driven policyकी विफलता है। सरदार पटेल के विरोध के बावजूद, जवाहरलाल नेहरू ने कश्मीर को “विशेष स्थिति” दी, और वह आज तक भारत की हर सरकार की रीढ़ में काँटा बनी हुई है।
कश्मीर: अंतरराष्ट्रीय सहानुभूति नहीं, आंतरिक एकता चाहिए
हमने बार-बार कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय मंच पर मानवाधिकार और बहुलतावाद के नाम पर “विशेष” बना दिया, लेकिन उसी समय चीन ने तिब्बत में अपनी पकड़ मज़बूत की, जनसंख्या स्थानांतरण कराया, और आज ल्हासा में CCP की विचारधारा के झंडे लहरा रहे हैं।
उदाहरण:
चीन ने शिनजियांग में उइगर मुस्लिमों को “deradicalization camps” में भेजा।
भारत ने कश्मीर में अलगाववादियों को सरकारी फंडिंग और Y+ सुरक्षा दी।
यह फर्क दर्शाता है कि भारत “विचारों की लड़ाई” लड़ने से डरता है, जबकि चीन उन्हें पूरी ताक़त से दबाता है — और वैश्विक मंच पर अपने नैरेटिव भी थोपता है।
उत्तर-पूर्व और नक्सलवाद: विकास का विफल दर्शन
अरुणाचल प्रदेश में सड़कें 70 साल बाद बन रही हैं। और झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे राज्य वर्षों से नक्सलवाद की चपेट से मुक्त करने के लिए भारत सरकार को बहुत मेहनत करनी पड़ती हैं — जहाँ अब भी कई क्षेत्रों में “भारत का संविधान” लागू नहीं है, केवल बंदूक का डर है।
“शासन नहीं, केवल उपस्थिति — यही भारत की छवि है इन क्षेत्रों में।”
चीन अपने तिब्बत और शिनजियांग जैसे सीमावर्ती क्षेत्रों को सेना, सड़क, शिक्षा और कड़ी निगरानी से मजबूत करता है, जबकि भारत अपने सीमावर्ती क्षेत्रों को neglect कर देता है और फिर अंतरराष्ट्रीय मंच पर “संप्रभुता की चिंता” जताता है।
भारतीय विदेश नीति: नैतिकता या कायरता?
“भारत में जो भी हो — यह हमारा आंतरिक मामला है। किसी के बाप से यह देश नहीं चलता है। फिर भी हम डर-डर कर विदेश नीति क्यों बनाते हैं?”
एक स्वतंत्र राष्ट्र को अपनी आंतरिक घटनाओं पर नियंत्रण और संप्रभुता का अधिकार होता है। लेकिन भारत में यदि कोई बाहरी देश—जैसे कतर, तुर्की या ईरान—किसी दंगे, क़ानूनी फैसले या धार्मिक मसले पर टिप्पणी कर देता है, तो हमारे नेता “गंभीर नोट” या “आश्वासन” देते फिरते हैं।
कतर प्रकरण: डिप्लोमैसी का डरावना दृश्य
जब कतर ने भारत में हुई एक धार्मिक टिप्पणी पर सख़्त प्रतिक्रिया दी और भारतीय राजदूत को तलब किया, तो भारत ने तुरंत सफाई जारी की, बयान वापस लिया और एक चैनल पर कार्यवाही तक कर डाली।
प्रश्न: क्या कतर ने कभी अफगानिस्तान या चीन के मुस्लिम दमन पर कोई “राजदूत तलब” किया?
नहीं।
तो हम क्यों बार-बार “डरपोक” की तरह व्यवहार करते हैं? क्योंकि हमारी विदेश नीति आत्मबल नहीं, छवि नियंत्रण पर आधारित है।
हम एक “image democracy” बन गए हैं — जहां अंतरराष्ट्रीय छवि बचाने के चक्कर में राष्ट्रीय स्वाभिमान बलिदान कर दिया जाता है।
UPSC और डिप्लोमैसी: क़ाबिलियत की हत्या
“डिप्लोमेट बनाना चॉइस नहीं, क़ाबिलियत होनी चाहिए।”
UPSC द्वारा चुने गए 99% भारतीय विदेश सेवा अधिकारी (IFS) अच्छे लेखन, बोलचाल और परीक्षा कौशल के धनी होते हैं, लेकिन कूटनीति केवल ये नहीं है। यह भू-राजनीति, संस्कृति, सैन्य रणनीति और मनोवैज्ञानिक रणनीति की पराकाष्ठा है।
उदाहरण:
अमेरिका के हेनरी किसिंजर — केवल एक स्कॉलर नहीं, बल्कि शातिर रणनीतिकार भी थे।
चीन के यांग जिएची — अंग्रेज़ी में पारंगत, पर साथ ही चीनी सभ्यता के राजनीतिक प्रयोगकर्ता।
“डिग्री है, दृष्टिकोण नहीं। भाषा है, भावना नहीं। यही हमारी विदेश नीति की असली विफलता है।”
बाहरी खतरों के लिए भीतरी ढील
कई बार लगता है कि भारत की विदेश नीति दिल्ली के ड्रॉइंग रूम्स में बैठकर लिखी जाती है, जमीनी हकीकत से दूर। यही कारण है कि पाकिस्तान, चीन और यहां तक कि बांग्लादेश तक भारत को अपनी रणनीतिक शर्तों पर नचाने की स्थिति में हैं।
चीन का ‘साल्टनत-ए-बांग्ला’ प्रयोग
हाल ही में चीन और तुर्की का बंगाल की राजनीति और बांग्लादेश में उपस्थिति को बढ़ाने का प्रयास साफ़ दिखाई देता है — बंगाली इस्लामी पहचान के सहारे। जबकि भारत इन प्रयासों को नज़रअंदाज़ करता रहा है।
अगर हम इसी तरह “image management” में उलझे रहे, तो आने वाले वर्षों में भारत के पूर्वोत्तर में भी geopolitical encirclement हो सकता है — जिसका नाम होगा “Neo-Mughal Frontier”।
निष्कर्ष: क्या भारत को फिर से जन्म लेना पड़ेगा?
“यही हालात रहे तो वह दिन दूर नहीं जब कुत्ते उठाने वाली गाड़ियाँ हमें छोड़ कर आएंगी।”
यह वाक्य प्रतीकात्मक है, पर चेतावनी की तरह पढ़ा जाना चाहिए। यदि भारत ने अपनी विदेश नीति, आंतरिक प्रशासनिक प्रणाली और राष्ट्रहितों के प्रति गंभीर आत्मनिरीक्षण नहीं किया, तो वह दिन दूर नहीं जब भारत केवल वैश्विक मंचों का “लचीला बौद्धिक” बनकर रह जाएगा — जिसे सब सुनते हैं, पर कोई मानता नहीं।
“राष्ट्र का आत्मसम्मान तब टूटता है जब उसकी नीति वोट से बड़ी नहीं होती।” – चंद्रशेखर आज़ाद




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